राष्ट्रकूट वंश
राष्ट्रकूट वंश की स्थापना दन्तिदुर्ग ने 735 ई० में किया मान्यखेट या मनिकर को राजधानी बनाया| कहा जाता है की स्वतन्त्र राष्ट्रकूट वंश की स्थापना से पहले दन्तिदुर्ग बादामी के चालुक्य के सामंत थे| दन्तिदुर्ग को दंतिवर्मन के नाम से भी जाना जाता है, दन्तिदुर्ग द्वारा उज्जयिनी में हिरंगार्भ यज्ञ करवाया गया था, इस यज्ञ को माहादान यज्ञ भी कहा जाता है|
प्राप्त प्रमाण के अनुसार राष्ट्रुकुत वंश के शासक यदुवंशी क्षत्रिय शासक थे और हिन्दू धर्म को मानते थे लेकिन बाद में में जैन धर्म को अपना लिया| इस वंश की राजकीय भाषा कन्नड़ तथा संस्कृत था| इस साम्राज्य का विस्तार दक्षिण भारत, मध्य भारत और कुछ उत्तर भारत के क्षेत्रों में था|
शासक | शासनकाल |
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दन्तिदुर्ग | 735 से 756 ई० |
कृष्ण प्रथम | 756 से 774 ई० |
गोविन्द द्वितीय | 774 से 780 ई० |
ध्रुव | 780 से 793 ई० |
गोविन्द तृतीय | 793 से 814 ई० |
अमोघवर्ष प्रथम | 814 से 878 ई० |
कृष्ण द्वितीय | 878 से 914 ई० |
इंद्र तृतीय | 914 से 929 ई० |
अमोघवर्ष द्वितीय | 929 से 930 ई० |
गोविन्द चतुर्थ | 930 से 936 ई० |
अमोघवर्ष तृतीय | 936 से 939 ई० |
कृष्ण तृतीय | 939 से 967 ई० |
खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ | 967 से 972 ई० |
कर्क द्वितीय | 972 से 973 ई० |
कृष्ण प्रथम
दन्तिदुर्ग के चचा कृष्ण प्रथम 756 ई० में सत्ता संभाली और तुरंत बाद ही इसने वातपी के चालुक्य शासक को दमन कर दिया और वेंगी के चालुक्य तथा मैसूर के गंग शासकों को अपने आधीन कर लिया| इनका शासनकाल 774 ई० तक रह अपने इस कार्शायकाल में इन्होने एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया|
गोविन्द द्वितीय
गोविन्द द्वितीय 774 ई० में राजा बना यह एक आयोग शासक था जिसका लाभ उठाकर ध्रुव ने इसे हटाकर सत्सता पर काबिज हो गया| कृष्ण प्रथम के शासनकाल में इसी ने वेंगी के चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ को पराजय कर उसे अपने अधीन कर लिया|
ध्रुव
780 में गद्दी पर काबिज होने वाले ध्रुव को धारावर्ष भी कहा जाता है| इन्होने उत्तरापथ की ओर अभियान चलाया जोकि सफल रहा, इस सफल अभियान के उपरांत ध्रुव ने गंगा-युमना के प्रतीक चिन्ह को अपना राज चिन्ह बनाया|
ध्रुव राष्ट्रकूट वंश का पहला शासक था जिन्होंने कनौज्ज पर अधिकार करने के लिए त्रिपक्षीय युद्ध में भाग लिया| इस युद्ध में प्रतिहार नरेश वत्सराज को झाँसी के निटक और पाल नरेश धर्मपाल को गंगा-यमुना के दोआब में पराजित किया|
गोविन्द तृतीय
गोविन्द तृतीय 793 ई० में शासक बना और अपने पिता ध्रुव के उत्तरापथ के अभियान को जारी रखा और अभियान को बढ़ाकर हिमालय तक ले गया| इस अभियान के दौरान मालवा, कोशल तथा कलिंग और दक्षिण भारत में पल्लव, पाण्ड्य तथा गंग वंश के शासकों को पराजित किया| इसने भी त्रिपक्षीय युद्ध में भाग लेकर चक्रायुध एवं उसके संरक्षक पाल नरेश धर्मपाल तथा प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय को पराजित किया|
अमोघवर्ष प्रथम
यह राष्ट्रकूट शासकों में एक महान तथा सबसे अधिक समय (814 से 878 ई०) तक शासन करने बाला शासक था| इनका शासनकाल शांतिपूर्ण रहा, शांतिप्रिय और उदारता के कारण इनकी तुलना मौर्य शासक अशोक से किया जाता है| साहित्य और कला के प्रेमी होने के कारण इसकी तुलना गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय से किया जाता है|
अमोघवर्ष प्रथम ने कन्नड़ भाषा में कविराजमार्ग की रचना किया यह जैन धर्म को मानता था| अदिम्पुराण के रचनाकार जिनसेन, गनितासार के रचनाकार महावीराचार्य और अमोघवृति के रचनाकार सक्तयना अमोघवर्ष प्रथम के दरवार में रहते थे| जैन धर्म के अनुयायी अमोघवर्ष प्रथम जैनी गुरु जिन्सें के शिष्य थे| अमोघवर्ष प्रथम ने तुंगभद्रा नदी में जल समाधि लेकर अपने जीवन का अंत किया|
इंद्र तृतीय
अमोघवर्ष प्रथम के बाद कृष्ण तृतीय शासक बना किन्तु कृष्ण द्वितीय एक आयोग शासक था और इसका पूरा जीवन चालुक्यों के साथ संघर्ष करे हुए बीता| इनके बाद इंद्र तृतीय शासक बना| इसने भी त्रिकोणीय संघर्ष में भाग लिया|
इसने भी त्रिकोणीय संघर्ष में भाग लिया|
इसी के शासनकाल के में अरब यादी अलमसुदी भारत आया, अलमसुदी ने इंद्र तृतीय को दुनियाँ के चार महान शासकों में से एक बताया| तीन अन्य शासक खलीफा, बाइजंतीया और चीनी सम्राट को बताया|
अमोघवर्ष द्वितीय
यह वेमुलावाड़ा के शासक अरेकेसरी के खिलाफ विद्रोह करने बाले सामंतो की सहायता से राजा बना| अमोघवर्ष द्वितीय को बरिगा के नाम से भी जन आजाता था यह केवल एक वर्ष तक शासन किया फिर इसे हटाकर गोविन्द चतुर्थ राजा बन गया|
कृष्ण तृतीय
इनके पूर्व गोविन्द चतुर्थ शासक बना लेकिन कमजोर होने के कारण वेंगी के चालुक्य शासकों ने युद्ध कर राष्ट्रकूट को काफी नुकसान पहुचाया| इसके बाद अमोघवर्ष तृतीय बना जोकि अमोघवर्ष द्वितीय का पुत्र था| उनके बाद कृष्ण तृतीय शासक बना और ‘अकाल वर्ष’ की उपाधि धारण किया|
इसने कई युद्धों में जीत प्राप्त कर कमजोर पड़ चुके राष्ट्रकूट साम्राज्य के पुनः निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया| इन्होने एक विजय अभियान चलाकर काँची और तंजौर को जीता इस उपलक्औष्रय में “तंजयमकोंड’ की उपाधि धारण की| इसके अलावे चोल नरेश परान्तक प्रथम को पराजित कर उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया|
शांति पुराण के रचनाकार कवि पोन्न कृष्ण तृतीय के दरवार में रहते थे| यह राष्ट्रकूट वंश का अंतिम “महान शासक” था और इनके मृत्यु के बाद सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया| गुर्जर प्रतिहार वंश
खोट्टिम अमोघवर्ष प्रथम
इसके शासनकाल में परमार के शासक सियाका प्रथम ने राष्ट्रकूट की राजधानी मान्यखेट को नष्ट कर दिया कर्क द्वितीय ने खोट्टिम अमोघवर्ष को पुनः सिंहासन पर बैठाया और 968 से 972 ई० तक शासन किया| राष्ट्रकूट वंश के पतन में यह भी एक प्रमुख कारण बना|
कर्क द्वितीय
इसे कल्याणी के चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने 973 ई० में कर्क द्वितीय को पराजित कर उनके राज्य पर अधिकार कर लिया अंततः राष्ट्रकूट वंश का पतन हो गया| राष्ट्रकूट के ध्वंसावशेष पर ही कल्याणी के चालुक्य वंश की नींव राखी गई|
धर्म
ऐलोरा और एलिफेंटा के गुहामंदिरो का निर्माण राष्ट्रकूट के शासनकाल के दौरान ही बनाया गया| ऐलोरा में कुल 34 गुफाएँ है जिसमे 1 से 12 तक बौद्ध धर्म, 13 से 29 हिन्दू धर्म और 30 से 34 जैन धर्म से संवंधित है| राष्ट्रकूट शैव, वैष्णव, शाक्त, और जैन धर्म के उपासक थे|
पतन के कारण
खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ 968 से 972 ई० तक शासन किया इस कार्यकाल के दौरान वह राजधानी मान्यखेट को रक्षा करने में असफल रहा जिससे लोगों का विश्वास अपने राजा खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ से ख़त्म हो गया और खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ पक्षिमी घाट में चला गया जहाँ उसने साहसी वंश और कदंब वंश के सहयोग से एक गुमनाम की जिंदगी व्यतीत करने लगा|