मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय | Munshi Premchand Biography in hindi

हिन्दी तथा उर्दू के महान भारतीय साहित्यकारों में से एक है मुंशी प्रेमचंद्र ने अपने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखें किन्तु जीवन में कभी भी हार नहीं माने और अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहें| आगे चल कर वो ना केवल एक साहित्यकार प्रसिद्ध हुएं बतौर एक राष्ट्रीय जन आन्दोलन में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ|

मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand)

मुंशी प्रेमचंद्र के नाम से प्रसिद्ध, धनपत राय श्रीवास्तव जी का जन्म 31 जुलाई 1880 ई० वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के निकट लामही नामक गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था इनका जीवन काफी संघर्षों भरा रहा इस संबंध में रामविलास शर्मा लिखतें ही की जब वे सात वर्ष के थे तो उनके माता आनंदी देवी का स्वर्गवास हो गया था और जब प्रेमचंद्र सोलह वर्ष के हुए तो पिता मुंशी अजायब राय का भी स्वर्गवास हो गया|

शिक्षा

प्रेमचंद्र की आरंभिक पढाई गावँ से ही शुरू हुई, अपने गरीवी से लड़ते और संघर्ष करते-करते बड़ी मुश्किल से दशवीं तक के पढाई किया| प्रेमचंद्र चाहते थें की वे एक वकील बनें इसके लिए प्रेमचंद्र ने एक वकील के यहाँ टियुशन पकड़ लियें और उन्ही के घर में रहने लगे| इनके लिए उन्हें पांच रुपये मिलता था जिसमे तीन रुपये घरवालों को और बाकी के दो रुपये से अपने जीवन के आगे की पढाई पर खर्च करते थे| इन्ही कठिन परिस्थितियों के बीच उन्होंने ने अपनी पढाई किया|

उन्होंने ने अंग्रेजी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास साहित्य के विषय में उन्होंने इंटरमीडिएट कक्षा की पढाई करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्सियन, और इतिहास विषयों से स्नातक की पढाई पूरा किए|

वैवाहिक जीवन      

प्रेमचंद्र का विवाह मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में उनके सौतेले नाना ने एक ऐसी लड़की से तय कर दिया, जो बदसूरत और झगड़ालू थी| इस पर प्रेमचंद्र स्वंय लिखते है की उसे जब मै देखा तो मेरा खून सुख गया अतः प्रेमचंद्र का पहला विवाह का टूट गया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है|

शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है की “पिताजी ने जीवन के अंतिम क्षणों में एक ठोकर खाई और स्वंय तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया और मेरी शादी बिना सोचे समझे करा दिया|

यह घटना वेहद ही दुखद रहा होगा किन्तु इस घटना के बाद प्रेमचंद्र ने ये निश्चय की वह दूसरा विवाह एक कन्या से करेंगे जोकि उच्च विचार और आदर्शों के अनुरूप हो|

प्रेमचंद्र ने दूसरा विवाह 1906 ई० में शिवरानी देवी नामक एक बाल विधवा से किया जो उच्य आदर्शो वाली महिला थी| दूसरी शादी के बाद प्रेमचंद्र की जीवन बिलकुल ही बदल गया| प्रेमचंद्र की पदोउन्नति हुआ और स्कुल में उन्हें डिप्टी इन्स्पेक्टर बना दिया गया जीवन सुखी पूर्वक बितने लगा|

प्रेमचंद्र काफी उदार किस्म के व्यक्ति थे जिसका लोग गलग लाभ उठाते थे क्योंकी जो धन राशि उधर देते थे वह लौटता ही नहीं था| बार-बार ठोकर खाने के बाद भी हमेशा उदार बने रहते थे इस बात को लेकर पत्नी शिवरानी देवी कभी-कभी पत्नी तंज भी कसती थी|

साहित्यिक जीवन

प्रेमचंद्र का साहित्यिक जीवक का आरम्भ 1901 ई० से ही हो चूका था, आरंभिक समय में वह नवाब राय (प्रेमचंद्र) के नाम से उर्दू में लिखते थे| इस संबंध में रामविलास शर्मा लिखते है की प्रेमचंद्र की पहली रचना अप्रकाशित रही संभवतः यह एक नाट्य रचना थी|

इनका पहला उपलब्ध लेख उर्दू उपन्यास “असरारे मआबिद” थी जोकि धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुई जिसे बाद में देवस्थान रहस्य नाम से हिन्दी में रुपान्तरण किया गया|

1908 ई० में प्रेमचंद्र जी के पांच कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ के नाम से प्रकाशित हुआ| इस कहानी में देशभक्ति के भावना भरी हुई थी| इस कारण अंग्रेजों ने इस पर प्रतिवंध लगा दिया और इनकी सभी प्रतियाँ को जब्त कर लिया गया साथ हीनवाब राय को भविष्य में लेखन ना करने की चेतावनी भी दी गई|

लेकिन चेतावनी के बाद भी प्रेमचंद्र रुके नहीं वल्कि नवाब राय की जगह प्रेमचंद्र के नाम से कहानियाँ लिखने लगे| इनका यह नाम (प्रेमचंद्र) दयानारायण निगम ने रखा था| प्रेमचंद्र नाम से प्रकशित उनकी पहली कहानी “बड़े घर की बेटी” थी जोकि ज़माना पत्रिका में प्रकाशित हुई थी|

1918 ई० में प्रकाशित हुई, उनका पहला हिन्दी उपन्यास “सेवा सदन” सेवा सदन ने उन्हें इतना लोकप्रिय हुआ की इस कहानी ने उन्हें उर्दू से हिंदी कथाकार बना दिया| इनके बाद उन्होंने ने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा इसलिए हिन्दी साहित्य तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 ई० से 1936 ई० क समय को युग कहा जाता है|

प्रेमचंद्र ने अपने जीवन में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है| इनकी क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर, उपन्यास सम्राट आदि कई उपनामों में जाने-जाने लगें|

मृत्यु

प्रारंभिक जीवन के तरह ही इनके जीवन का अंत भी बड़ा ही दुखदाई रहा| कलम का जादूगर मुंशी प्रेमचंद्र भी अपने पिता की तरह पेचिस से ग्रसित थे 1936 ई० से वह लगातार वीमार रहने लगे| आर्थिक कष्टों के कारण उनका सही तरह से इलाज नहीं हो सका और 1936 ई० को इस दुनियाँ को अलविदा कह गएँ|

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